Wednesday, May 15, 2024

 राम द्वारा सीता परित्याग की पृष्ठभूमि

- वाल्मीकिरामायण 7:43:15 के अनुसार भद्र नामक सहचर और विदूषक ने राम को जनसाधारण में सीता के चारित्रिक शुद्धता को लेकर लोकापवाद के बारे में विस्तार से बताया. 7:45:12 में सीता को लेकर ‘पौरापवाद’ और जनपद में ‘अकीर्ति’ फैलने के कारण राम ने सीता को तपोवन भेजने का निर्णय किया. 

- वाल्मीकि रामायण की एकदम यही बात रघुवंशम 14:32 में वर्णित है. 

- उत्तररामचरितम 1:40 में दुर्मुख नामक गुप्तचर राम को नगर और जनपद के लोगों के बीच सीता के चरित्र को लेकर फैले अफवाह के बारे में बताता है. 

- पद्मपुराण1:36:09 में सीता के त्याग का भी उल्लेख है, ‘लोकवाक्याद्विसर्जिता’. पद्मपुराण 5:56:23 में गुप्तचर राम को एक धोबी (रजक) द्वारा सीता की पवित्रता पर संदेह को लेकर राजा की निंदा करने वाली बात कही.

- भागवतपुराण 09:11:08 अपनी प्रजा की स्थिति जानने के लिये रात में घूमते हुए राम ने किसी व्यक्ति द्वारा उसकी पत्नी से सीता की पवित्रता पर संदेह वाली बात खुद सुनी.

- रामचरितमानस में राम द्वारा सीता के परित्याग का पूरा प्रसंग ही छोड़ दिया गया.


Saturday, March 18, 2023

देवताओं का चातुर्वर्ण्य

 श.ब्रा. 13:04:03:03 में विवस्वान पुत्र राजा मनु को मनुष्य से जोड़ा गया है, जिसका वेद ऋक था. जाहिर है कि ऋक को क्षत्रियों से जोड़ा गया है. आदित्यपुत्र राजा वरुण को गंधर्वों से जोड़ा गया है, जिस समुदाय का वेद अथर्वन था. उसी प्रकार विष्णुपुत्र (वैष्णव) राजा सोम को अप्सरा समुदाय से जोड़ा गया, जिसका वेद अंगिरा था. धन्व पुत्र राजा असित को असुरों से जोड़ा गया, जिसका वेद जादू-टोना था. ये अलग अलग समुदाय और उनसे जुड़ा वेद आर्य समुदाय के अतीत की कहानी कहता है. क्षत्रिय वो विजेता थे जो अपनी उत्पत्ति मनु से मानते होंगे. इन्होंने ही ऋकों की रचना की. असुर, गंधर्व, अप्सरा, राक्षस, सर्प जैसे जन क्षत्रियों से पराजित होकर आर्य समुदाय का सहायक अंग बने थे. ऐतरेयब्राह्मण 7:20 में आदित्य को दैव क्षत्र कहा गया है. श.ब्रा. 02:04:03:06 इंद्र-अग्नि को ‘क्षत्र’, बाकी देवताओं को ‘विश’ कहा गया. इंद्र-अग्नि द्वारा जीते गये में विश (विश्वेदेवा) का भाग होता है. आर्य समुदाय में क्षत्र-विश वर्ग विभाजन का यह पहला चरण माना जा सकता है.

कौ.ब्रा.12:08 में इंद्राग्नि को ‘ब्रह्मक्षत्र’ कहा गया. वर्गीय विभाजन की दिशा में यह अगला चरण लगता है, जिसमें ब्राह्मणों ने अपने धार्मिक महत्व के आधार पर क्षत्र के साथ सामाजिक समानता की तलाश करना शुरु किया.  तै.सं.1:03:07 में अग्नि को ऋषियों का पुत्र, ‘अधिराज’ कहा गया है. तै.सं1:04:13 में अग्नि वैश्वानर को ‘कवि, सम्राट, और अतिथि’ कहा गया है. तै.सं. में अग्नि को ‘अध्वरेषु राजन्’ (यज्ञों में राजा) कहा गया है. कौ.ब्रा.12:08 ‘अग्निर्ब्रह्म’ अग्नि ब्रह्म है. तै.सं.2:05:12 में अग्नि को प्राचीन राजा, ‘प्रत्न राजन्’, कहा गया है. ऋग्वे.01:61:02 में इंद्र को प्रत्न (प्राचीन राजा) कहा गया है. 4:03:03 में प्रत्न ऋषि का भी उल्लेख है. श.ब्रा.02:05:02:06 में वरुण को राजन्य और मरुतों को ‘विश’ कहा गया है. श.ब्रा.05:01:01:11 ‘-- क्षत्रं हीन्द्रं क्षत्रं राजन्यः—‘ इंद्र क्षत्र है.  शांतिप.208:23, 24 में आदित्यों को क्षत्रिय, मरुतों को वैश्य, अश्विनीकुमारों को शूद्र कहा गया है. अंगिरा से उत्पन्न देवताओं को ब्राह्मण कहा गया है. श.ब्रा.10:04:01:05 में अग्नि को ब्रह्म और इंद्र को क्षत्र कहा गया है. विश्वेदेवा को विश कहा गया. श.ब्रा. 09:01:01:15,25 में रुद्र को क्षत्र बताया गया है. 3:03:09 रुद्र को समर्पित प्रार्थना में उसे क्षत्र का शिखर कहा गया है. तै.स.1:01:09 में वसुओं को गायत्री, और रुद्रों को त्रिष्टुभ, और आदित्यों को जगती छंद से जोड़ा गया है. तै.सं.1:03:11 में वरूण को राजा, 1:03:13, 2:03:14 में सोम को राजा कहा गया है. कौ.ब्रा.12:08 में सोम, इंद्र, वरुण को क्षत्र कहते हुए प्रजापति को ब्रह्म और क्षत्र दोनों गुणों को धारण किया हुआ बताया गया. यहाँ यजमान को ब्रह्म और क्षत्र शक्तियों से पूर्ण अन्न ग्रहण करने वाला बताया गया है. तै.सं.2:01:11 में आदित्यों को क्षत्रिय कहा गया है ‘त्यान्नु क्षत्रियां अव आदित्यान् याचिषामहे‘. तै.सं.2:03:14 बृहस्पति के लिये सम्राट शब्द का प्रयोग. श.ब्रा.14:04:02:23 ‘ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्। एकमेव तदेकं सन्न व्यभवत्तच्छ्रेयो रूपमत्यसृजत क्षत्रं यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रो वरुणः सोमो रुद्रः पर्जन्यो यमो मृत्युरीशान इति—‘. यहाँ स्पष्ट तौर पर कहा गया कि क्षत्र से इंद्र, वरुण, सोम, पर्जन्य, यम, मृत्य, ईशान हुए. अनुशासनप.151:,, के कार्तवीर्य-वायु सम्वाद में पृथ्वी, जल, अग्नि, सूर्य, वायु, आकाश को क्षत्रिय सूचक बताते हुए, ब्राह्मण को इन सबसे श्रेष्ठ बताया गया है. कौ.ब्रा.7:10 में सोम, वरुण, को क्षत्र, और बृहस्पति को ब्रह्म कहा गया है.


Thursday, May 20, 2021

अतीत का युद्ध और कुम्भ की अवधारणा !

 कुंभ की अवधारणा को समुद्र मंथन की कहानी से जोड़ा जाता है, जो एक प्रतीकात्मक कहानी है। इसके पीछे के वास्तविक अर्थ को समझा जाना आवश्यक है। 

कुंभ, यानी घड़ा, का संबंध यज्ञों में तैयार सोमरस के पात्र से है। महाभारत, आदिपर्व 34:,, में गरुड़ द्वारा यज्ञ से सोम कलश लेकर भागने का वर्णन है। इस पूरे वर्णन में 'सोम कलश' का अनुवाद 'अमृत कलश' किया गया है। मुझे लगता है की तथाकथित अमृत कलश की अवधारणा यज्ञ के 'सोम कलश' का ही विकसित रूप है।

इस छीना झपटी से जुड़ी एक और प्राचीन कहानी इंद्र और त्वष्टा के बीच शत्रुता पर आधारित है। यज्ञ-संस्कृति से जुड़े प्राचीन साहित्य में इंद्र द्वारा त्वष्टा का सोम जोर जबरदस्ती पीने का उल्लेख है। हालांकि मुझे लगता है कि सोम की छीना झपटी के पीछे देवताओं एवं असुरों के बीच हिंसक संघर्ष की कहानी छुपी हुई है। इसी संघर्ष के दौरान त्वष्टा के पुत्र वृत्र के इंद्र के हाथों मारे जाने का उल्लेख है। इस दौरान त्वष्टा के और भी पुत्र मारे गए थे। प्रतीकात्मक तौर पर युद्ध को भी यज्ञ कहा गया है। ऐसा लगता है कि देवताओं ने असुरों से उनकी समृद्धि छीन ली थी। सोम कलश प्राचीन यज्ञ में देवताओं को अर्पित की जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण वस्तु थी। बात की कहानियों में इस बात का उल्लेख आता है कि देवताओं ने यज्ञ असुरों से छीना था। इसमें यह संभव है उत्तर दिशा से आने वाले आर्य कबीलों ने उत्तरी पूर्वी ईरान के आर्थिक रूप से संपन्न कबीलों को अपनी युद्धक क्षमता से पराजित किया था। और उसके बाद उत्तरी कबीलों एवं ईरान के असुर संस्कृति वाले कबीलों के बीच शांतिपूर्ण सामंजस्य स्थापित हुआ था। इन्हीं मिश्रित आर्यों का बाद में भारतीय उपमहाद्वीप में आगमन हुआ था। उसी क्रम में उत्तर के कबीलों ने असुर संस्कृति के बहुत सारी धार्मिक कर्मकाण्डीय तौर-तरीकों को अपना लिया था। सामंजस्य स्थापित होने के बावजूद उत्तरी कबीलों के विजेताओं का आर्य समुदाय पर आने वाले समय में दबदबा बना रहा। 

उत्तर से आए हुए कबीलों एवं ईरान के आसुरी कबीलों के बीच सामंजस्य स्थापित होने के बावजूद अतीत की शत्रुता से जुड़ी कहानियां विभिन्न प्रकार के धार्मिक कर्मकांडों में जीवित रहा। सोम कलश की छीना झपटी का संबंध यज्ञ स्थल से जुड़ा है। और प्राचीन काल में रमणीक यज्ञ स्थलों को प्रयाग कहते थे। आर्य समुदाय की भारत में पहुंचने पर सरस्वती नदी का तट जो कुरुक्षेत्र इलाके में था, पवित्र प्रयाग के रूप में हमारे पौराणिक आख्यानों में उल्लिखित है। धीरे धीरे गंगा की उपत्यका में आर्य समुदाय के विस्तार के फलस्वरूप गंगा यमुना दोआब, और फिर आज का गंगा-यमुना संगम क्षेत्र धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो गया। संगम क्षेत्र का विकास करने में मुगल साम्राज्य का बहुत बड़ा हाथ रहा है। संगम क्षेत्र के विकास के पीछे इस स्थान का व्यवसायिक महत्व मूल रूप से रहा है। गौर करना चाहिए हमारे धार्मिक स्थल प्राचीन व्यावसायिक स्थलों से गहराई से जुड़े रहे हैं।

Sunday, February 28, 2021

दक्ष की अवधारणा

ऋग्वेद 10:121:,, में प्रजापति को सभी देवताओं को जानने वाला देवता मानकर उसकी पूजा करने की बात की गयी है. ऋग्वेद में ही देवताओं की उत्पत्ति दक्ष और अदिति से बताया गया है. और पौराणिक ग्रंथों में दक्ष को प्रजापतियों का राजा कहा गया है. अर्थात ऋग्वेद की अवधारणा के अनुसार दक्ष सभी देवताओं का पिता था. बाद के पौराणिक साहित्य में कई प्रजापति का उल्लेख है. सभी प्रजापतियों का राजा दक्ष का होना यह बताता है कि ऋग्वेद का दक्ष और प्रजापति, एक ही अवधारणा का दो अलग नाम हो सकता है. ऋग्वेद 10:72:02 ‘ब्रह्मनस्पति’ द्वारा देवताओं के बनाये जाने का उल्लेख है. क्या, प्रजापति, ब्रह्मणस्पति, और दक्ष एक ही अवधारणा का अलग रूप है? सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन करने वाला पुरुष-सूक्त यज्ञ को सृष्टि का कारण बताने वाली प्रतिकात्मक कहानी है. शतपथब्राह्मण 11:06:03:09 में यज्ञ को प्रजापति कहा गया है. पशु को यज्ञ कहा गया है.

शतपथब्राह्मण 01:07:04:01 में प्रजापति द्वारा अपनी पुत्री, दिव या उषा, से यौन सम्बंध स्थापित करने, और देवताओं द्वारा इसे पाप करार देने का उल्लेख है. देवताओं के कहने पर पशुपति रुद्र द्वारा प्रजापति (यज्ञ) को वाण से वींधने का उल्लेख है. यहाँ सभी देवता प्रजापति के पुत्र कहे गये हैं. भूमि पर गिरे वीर्य (रेत) को सार्थक करने, अर्थात् यज्ञ को सफल करने के क्रम में भग अंधा हुआ, पूषण का दांत दूट गया, आदि आदि. रुद्र के वाण के कारण पतित वीर्य को बृहस्पती के कहने पर सावित्री ने सफल किया. दक्ष-यज्ञ नष्ट किये जाने से जुड़ी कहानी का यह सम्भवतः सबसे प्राचीन रूप है. इस कहानी से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पुराणों का प्रजापति दक्ष ही यज्ञ संस्कृति में ‘प्रजापति’ की अवधारणा है. प्रजापति यज्ञ है. विष्णु यज्ञ है.

ऐतरेयब्राह्मण 3:35 में प्रजापति और उसकी पुत्री उषा के यौन सम्बंध वाली कहानी दी गयी है. यहाँ प्रजापति ने हिरण के रूप में अपनी पुत्री से मैथुन किया. पशुपति के वाण से प्रताड़ित प्रजापति के भू-स्खलित वीर्य के ऊपर अग्नि और मरुत के प्रयास से आदित्य, भृगु, अंगिरा, बृहस्पति की उत्पत्ति का उल्लेख है. इसी कहानी को पुराणों में वरुण के यज्ञ में ब्रह्मा के वीर्य की हवि देने से भृगु आदि की उत्पत्ति वाली कहानी में बदल दिया गया. इससे स्पष्ट हो जाता है कि दक्ष, प्रजापति का ही दूसरा नाम या विशेषण है.

शतपथब्राह्मण 02:04:04:02 में कहा गया कि प्रजा, पशु और सम्पदा के लिये यज्ञ करने के लिये प्रजापति ने ‘दाक्षायण’ यज्ञ किया. इस यज्ञ से वह दक्ष हुआ, ‘प्रजापतिर्ह वा एतेनाग्रे यज्ञेनेजे । प्रजाकामो बहुः प्रजया पशुभिः स्यां श्रियं गच्छेयं यशः स्यामन्नादः स्यामिति - २.४.४.[१] स वै दक्षो नाम -----‘. 


Tuesday, February 9, 2021

दैवाधीनं जगत्सर्वं मंत्राधीनश्च देवता: --

 आस्था के केंद्र में धारणा है. यह मानना कि यह करने से, ऐसा करने से, ऐसा होता है; आस्था का निर्माण होता है. ऋचा कहता है कि ब्रह्मा (स्तोत्र, प्रार्थना, प्रशंसा) से इंद्र के बल में वृद्धि होती है, तो यह आस्था है. ऐसा मानना कि छंद का प्रभाव देवताओं को सबल, सामर्थ्यवान, और सक्षम बनाता है, तो यह आस्था है. इसीलिये बौद्धिक चिंतन में देवताओं को छंदज, छंद से जनमा हुआ, कहा गया. देवताओं को सोम रस पसंद है, यह भी आस्था का विषय है. सोम अर्पित करने से देवता शक्तिशाली, ऐश्वर्यशाली होते हैं, यह आस्था का विषय है. इसी आस्था पर आधारित बौद्धिक चिंतन से यह निष्कर्ष निकला कि देवता सोमपा, सोम पायी, है.

आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास के साथ होने वाले बौद्धिक विकास से पुरानी आस्था की जगह नयी आस्था का विकास होता है. ऋकों में मंत्र शब्द नहीं पाया जाता. इससे जाहिर है कि मंत्र का सम्बंध यज्ञ और उससे जुड़े कर्मकाण्ड के विकास से है. यह एक नई प्रकार की आस्था का द्योतक है. यज्ञ में बहुत सारी ऋचाओं का इस्तेमाल मंत्र के तौर पर हुआ है. मंत्र से जुड़ी आस्था यह है कि इससे देवताओं को बाध्य होकर प्रसन्न होना पड़ता है. पूर्व में देवताओं को प्रसन्न करने के लिये स्तुति की जगह बाद में मंत्रों ने ले लिया. स्तुति और प्रार्थना वाली आस्था से मंत्र वाली आस्था में बदलाव मानवीय बुद्धि में विकास का परिणाम था. कर्मकाण्डों से जुड़े लोग अब मंत्रों के माध्यम से देवताओं जो जबरन अपने नियंत्रण में लेने की बात करने लगे. ब्रह्म, ब्रह्मा, ब्रह्माण, ब्रह्माणि जैसी शब्दावलियों का अर्थ ऋक सम्हिता में स्त्रोत्र, प्रार्थना, प्रशंसा बताया गया है. इन्हें कण्ठस्थ रखने और यथोचित इस्तेमाल करने वाले ब्राह्मण कहलाते थे. मंत्रों के युग में ब्राह्मण ऋत्विज ने तमाम तरह के ऋतिजों में प्रमुखता पाई. क्योंकि उसने मंत्र के माध्यम से देवताओं को अपने नियंत्रण में करने का दावा किया था. पौरोहित्य का बौद्धिक विकास का कदम यह रहा, कि ब्राह्मण पुरोहित ने स्वयं को देवताओं से भी ऊपर स्थापित करने का दावा किया. कुछ न सही, तो जनमानस में खुद को देवताओं जैसा सम्मान पाने का हकदार तो बनाया ही ! यह भी आस्था का एक रूप था. इस आस्था के सहारे ब्राह्मणवाद ने लगभग हजार वर्ष तक अपनी यात्रा सफलतापूर्वक जारी रखा है. इस आस्था को हम निम्नोक्त श्लोक में अभिव्यक्त पाते हैं,

'दैवाधीनं जगत्सर्वं मंत्राधीनश्च देवता:, ते मंत्रा:ब्राह्मणाधीना:, तस्मात् ब्राह्मण देवता:'

इस श्लोक को मेरे एक मित्र मनोज मन्मथ जी ने गर्वपूर्वक अपनी दीवाल पर प्रदर्शित किया है. हालाँकि इस प्रकार की आस्था को अभिव्यक्त करता हुआ विशाल साहित्य पौराणिक आख्यानों में उपलब्ध है. लेकिन, वहाँ भी ब्राह्मण शब्द का अर्थ ब्रह्म (स्तोत्र, प्रार्थना) को जानने वाला ही बताया गया है. मगर आज ऐसे श्लोकों का गर्वोन्नत उल्लेख 'गर्व से कहो हम ब्राह्मण हैं' जैसा नारा लगाने वाले लोग करते हैं. इस प्रकार का श्लोक आज आस्था पर आधारित नहीं है, सामुदायिक पहचान को परिभाषित करने के प्रयास पर आधारित है. दुखद यह है कि आस्था और अर्थ से हीन ऐसे प्रयास से ब्राह्मणवाद कलंकित होता है. इसकी जगह पर जातिवादी ब्राह्मणवाद बचा रह जाता है, जो हिंदुओं का धार्मिक नेतृत्व करने का नैतिक अधिकार नहीं रखता.

Thursday, February 4, 2021

इक्ष्वाकु और वसिष्ठ

 पौराणिक आख्यानों में बहुत सारी कहानियाँ हैं जिसमें वसिष्ठ को इक्ष्वाकु से लेकर राम, और उसके बाद तक, का खानदानी पुरोहित के तौर पर दिखाया गया है. लेकिन इसके साथ ऐसे अनेक प्रसंग यहाँ वहाँ बिखड़े पड़े हैं जिसमें ईक्ष्वाकुओं एवं वसिष्ठ कुल के बीच घोर शत्रुता का उल्लेख है. पौराणिक आख्यानों में जहाँ जहाँ क्षत्रिय विरोधी भावना खुल कर सामने आई है, वहाँ इक्ष्वाकुओं एवं वसिष्ठ कुल के लोगों के बीच वैमनस्य और शत्रुता का उल्लेख किया गया है. इसका कुछ उदाहरन हम देख सकते हैं,

-  वाल्मीकिरामायण उत्तरकाण्ड अध्याय 65 में भी इस कहानी का एक संस्करण है. इसमें भी सौदास द्वारा दो राक्षसों में से एक को मारने का उल्लेख है. सौदास के यज्ञ समापन पर वसिष्ठरूपी राक्षस को ‘पूर्व वैर स्मरण’ होने का उल्लेख है, ‘अथावसाने यज्ञस्य पूर्ववैरमनुस्मरन्, वसिष्ठरूपी राजानमिति होवाच राक्षसः’. तात्पर्य यह है कि यज्ञ करवा रहे वसिष्ठ के मन में पुराने वैर के स्मरण से राक्षस प्रवृत्ति जाग उठी.

-वाल्मीकिरामायण 1:69:27 में इक्ष्वाकु वंश का विवरण में कहा गया है, ’रघोस्तु पुत्रस्तेजस्वी प्रवृद्धः पुरुषादकः, कल्माषपादो ह्यभवत्तस्माज्जातस्तु शङ्खणः’. इस श्लोक में कल्माषपाद को ‘पुरुषादक’ (नरभक्षी) कहा गया है.

- विष्णुपुराण 1:01:12 में पराशर को यह कहते उद्धृत किया गया है कि विश्वामित्र द्वारा नियुक्त राक्षसों नें वसिष्ठ के पुत्रों को खा लिया था. इसी बात को नाटकीय बनाकर अनुशासनपर्व 03:03,04, और आदिपर्व 173:08 में लिखा गया कि विश्वामित्र ने क्रोध में ‘तेजस्वी राक्षस’ रच डाले थे. राक्षस की रचना से तात्पर्य विश्वामित्र के सहयोग से मित्रसह का कल्माषपाद हो जाना है. इस कथा में वसिष्ठ के शाप से कल्माशपाद के राक्षस हो जाने का भी उल्लेख है. वायुपुराण 01:175 में सौदास द्वारा वसिष्ठ पुत्र शक्ति के ‘निग्रह’ अर्थात् पराजित करने का उल्लेख है. अतः ‘तेजस्वी राक्षस’ सौदास को विश्वामित्र का सहयोग मिला था.

- आदिपर्व 180 में पराशर द्वारा ‘राक्षस-यज्ञ’ के आयोजन का वर्णन है. विष्णुपुराण 1:01:14 में भी इस राक्षस विनाश के लिये सत्र का उल्लेख है.

- विष्णुपुराण 1:01:14 ‘---, भस्मीभूताश्च शतशस्तस्मिन्सत्रे निशाचराः’, अर्थात् सैकड़ों राक्षसों के मारे जाने का उल्लेख है. निश्चित तौर पर यह अभियान उन विपक्षी आर्य जनों, यथा विश्वामित्र और कल्माशपाद शौदास, के विरुद्ध हुआ. इस हिंसक संघर्ष का वर्णन वामनपुराण 40:22 में भी देखा जा सकता है.

- वायुपुराण 2:26:176 में वसिष्ठ को कल्माषपाद के लिये अश्मक नामक पुत्र उत्पन्न करने का भी उल्लेख है. ब्राह्मण पौराणिकों द्वारा यह बात अपमानजनक संदर्भ में कहा गया है. महाभारत के अनुसार पराशर की माता ने कल्माशपाद को यह शाप दिया था, कि उसकी पत्नी मदयंती वसिष्ठ से संतानोत्पत्ति करेगी, जिससे सूर्यवंशियों का वंश आगे बढेगा. यह शाप धर्मशास्त्रीय युग के बाद की एक गाली है !

- शांतिपर्व 234:30 में कहा गया है, कि मित्रसह ने वसिष्ठ को अपनी पत्नी देकर उसके साथ स्वर्गलोक पाया था. मित्रसह, कल्माषपाद का नकारात्मक विशेषण है. कहने का उद्देश्य यह है राजा को अपनी पत्नी तक पुरोहितों को दान कर देना चाहिये !


Monday, January 18, 2021

धर्म की आड़ में

 ऋष्यशृङं द्विजश्रेष्ठं वरयिष्यति धर्मवित्,

यज्ञार्थां प्रसवार्थं च स्वर्गार्थं च नरेश्वरः.

वह धर्मवित् (दशरथ) द्विजश्रेष्ठ ऋष्यशृङ का यज्ञ, प्रसव, और स्वर्ग के लिये वरण करेगा. इसका एक अर्थ यह हो सकता है कि शांता को प्रसव करवाने में विशेषज्ञता रही हो. दूसरा अर्थ यह हो सकता  है कि क्षत्रिय-ब्राह्मण द्वेष से प्रेरित रचनाकार क्षत्रियों को वीर्यहीन साबित करने की मंशा रखता हो. 

'लभते च स तं कामं द्विजमुख्याद्विशांपतीः

पुत्राश्च भविष्यंति चत्वारः अमितविक्रमाः.'

उस द्विजमुख्य से कामना के अनुकूल वह राजा चार महावीर (अमितविक्रम) पुत्र की प्राप्ति करेगा'. 

क्योंकि इस प्रकार की मंशा का प्रकटिकरण कई प्रसंगों में देखा जाता है. जैसे भागवतपुराण 09:01:13 कहता है 

अप्रजस्य मनोः पूर्वं वसिष्ठो भगवान् किल, 

मित्रावरुणयोरिष्टिं प्रजार्थमकरोत् प्रभुः.

तत्र श्रद्धा मनोः पत्नी होतारं समयाचत,

दुहित्रर्थमुपागम्य प्रणिपत्य पयोव्रता.'

अर्थात्, 'कहा जाता है कि पहले मनु संतानहीन था. भगवान वसिष्ठ ने संतान के लिये मित्रावरुण यज्ञ किया. वहाँ मनु की पत्नी श्रद्धा ने होतृ के पास जाकर एक पुत्री की याचना की.'

अगले दो श्लोकों में इस यज्ञ के होता और अध्वर्यु के सम्मिलित 'व्यभिचार' का उल्लेख है. यह अजीब बात है कि यज्ञकर्ता मनु है, और उसकी पत्नी श्रद्धा को अपने पति की इच्छा के विरुद्ध होतृ को 'व्यभिचार' के लिये उकसाने की बात लिखना लेखक के नकारात्मक मंतव्य का द्योतक है. इसी 'व्यभिचार' को इला के जन्म का कारण बताया गया है. भागवतपुराण से पहले संकलित पौराणिक आख्यानों में इला की उत्पत्ति की अलग कहानी दी गयी है. जैसे जैसे पौराणिक आख्यानोंं के नये संस्करण सामने आते गये, क्षत्रिय द्वेष की प्रेरणा बढती गयी है.     

इस प्रकार का उल्लेख दोहरे अर्थ को धारण करता है. एक अर्थ निश्चय ही अपमानजनक उद्देश्य से प्रेरित है. 

भरत द्वारा भरद्वाज (वितथ) को गोद लेने के संदर्भ में भी बाद में रचित पौराणिक आख्यान अपमानजनक अर्थयुक्त है.

महाभारत आदिपर्व 94:18 में यह कहा गया कि, 

‘ततो महद्भिः क्रतुभिरीजानो भरतस्तदा,

लेभे पुत्रं भरद्वाजाद्भुमन्युं नाम भारत’, 

अर्थात्, 'यज्ञ में भरद्वाज से मन्यु नामक पुत्र प्राप्त किया.'  

अन्यत्र वसिष्ठ को राम के पूर्वज ऐक्ष्वाक कल्माषपाद की पत्नी में अश्मक नामक पुत्र उत्पन्न करता हुआ बताया गया है. जबकि इसी कहानी में कल्माषपाद और विश्वासमित्र द्वारा वसिष्ठ के सौ पुत्रों के विनाश का वर्णन भी है ! 

------------

और दक्ष के साथ तो और भी अन्याय किया गया है. गाली-गलौज, अपमान की हद पाई जाती है. इसे अलग से देखना होगा !